Wednesday 16 July 2014

महंगाई

महंगाई का मोर्चा

जनसत्ता 04 जुलाई, 2014 :

महंगाई मोदी सरकार के लिए लगातार चुनौती बनती जा रही है। इससे पार पाने के लिए जहां व्यावहारिक उपायों पर अमल करना चाहिए, वह रसोई गैस, पेट्रोलियम पदार्थों, चीनी वगैरह की कीमतें बढ़ाने और सबसिडी कम करने का रास्ता अख्तियार कर रही है। जिस तरह आम चुनाव में नरेंद्र मोदी ने मनमोहन सिंह सरकार के समय बढ़ी महंगाई और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया, उसमें उनकी प्राथमिकता महंगाई पर काबू पाने की होनी चाहिए थी। मगर इस मोर्चे पर उनकी सरकार के हाथ-पांव फूले नजर आने लगे हैं। खाद्य वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ती जाने के बाद जिस तरह उसने आलू और प्याज को अनिवार्य वस्तु कानून के दायरे में रख दिया गया है उससे भी उसकी रणनीतिक विफलता जाहिर हुई है। केवल आलू और प्याज की कुछ उपलब्धता सुनिश्चित कर खाद्य वस्तुओं की महंगाई से पार पाने का दावा नहीं किया जा सकता। आलू और प्याज की बढ़ी कीमतों के पीछे जमाखोरों का हाथ होने से इनकार नहीं किया जा सकता, मगर यह भी देखने की जरूरत है कि ये दोनों कच्ची फसलें हैं और बगैर समुचित भंडारण प्रबंध के इन्हें देर तक रोक कर नहीं रखा जा सकता। इसलिए कड़ाई के जरिए नई फसल आने तक इनकी समुचित आपूर्ति हो सकेगी और इस तरह महंगाई पर काबू पाया जा सकेगा, कहना मुश्किल है। 
महंगाई बढ़ने के पीछे वस्तुओं की उपलब्धता के साथ-साथ उनके विपणन से जुड़ी नीतियां भी जिम्मेदार होती हैं। मोदी सरकार इस पहलू पर शायद ध्यान नहीं देना चाहती। डीजल-पेट्रोल की कीमतें और माल ढुलाई का किराया बढ़ने से वस्तुओं की कीमतों पर जो असर पड़ेगा उसे किस तरह रोका जा सकेगा? अप्रैल में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई 5.2 फीसद थी, जो मई में बढ़ कर छह फीसद से ऊपर पहुंच गई। अब भी उसका रुख ऊपर की तरफ है। आम लोगों को वस्तुओं की कीमतें थोक मूल्य से काफी ज्यादा चुकानी पड़ती हैं। इस तरह महंगाई का जो स्तर सरकार के सामने होता है, आम उपभोक्ता पर उसकी मार उससे कहीं ज्यादा पड़ती है। यूपीए सरकार के समय महंगाई रोकने के लिए कई बार बैंक दरों में फेरबदल का रास्ता अख्तियार किया गया, पर उसका कोई सार्थक नतीजा नहीं निकल पाया। मोदी सरकार अगर पिछली सरकार की नाकामियों का ठीक से अध्ययन करती तो उसे कोई व्यावहारिक रास्ता तलाशने में मदद मिलती। पिछले कई सालों से बड़ी कंपनियों को कर रियायत के रूप में करोड़ों रुपए का लाभ पहुंचाया जाता रहा है। मोदी सरकार ने भी चीनी की कीमतें बढ़ाने के साथ-साथ चीनी मिल मालिकों को रियायत दी, ताकि वे गन्ना किसानों का भुगतान कर सकें। मगर दूसरी तरफ कमजोर आयवर्ग को मिल रही रियायतों को कम करने के कदम उठाए जा रहे हैं। चीनी की कीमत बढ़ाने, गैस सिलिंडरों पर से सबसिडी घटाने से जो महंगाई की मार लोगों पर पड़ रही है, उसकी चिंता सरकार के माथे पर नजर नहीं आती। फिर यह समस्या सिर्फ आलू, प्याज, चीनी तक सीमित नहीं है। तमाम फलों-सब्जियों के दाम आसमान छूने लगे हैं। जिन सब्जियों और फलों का उत्पादन इस मौसम में होता है, उनकी कीमतें भी काबू में नहीं हैं। इसी तरह अनाज, खाद्य तेल और दूसरी उपभोक्ता वस्तुओं के दाम पर नियंत्रण नहीं रह गया है। जब तक केवल बड़ी कंपनियों और व्यापारी वर्ग के हितों का ध्यान रखने के बजाय खेती-किसानी की बेहतरी के उपायों और कृषि उत्पादों के भंडारण, विपणन आदि को लेकर व्यावहारिक नीति नहीं बनती, महंगाई के मोर्चे पर विफलता ही मिलेगी।
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राहत की बात

Wed, 15 Oct 2014

लंबे समय से महंगाई से जूझ रहे देश को बड़े दिनों बाद राहत देने वाली खबर मिली है। खुदरा महंगाई में कमी के बाद थोक महंगाई दर का पांच साल के न्यूनतम स्तर पर आना एक बड़ी कामयाबी है। इसके लिए केंद्र सरकार के साथ-साथ रिजर्व बैंक की खास तौर पर सराहना की जानी चाहिए जिसने महंगाई पर लगाम लगाने के लिए अतिरिक्त उपाय किए और तमाम आलोचना-असहमति के बावजूद अपने रवैये पर अडिग रहा। थोक महंगाई दर का 2.78 फीसद पर आना इसलिए अधिक राहतकारी है, क्योंकि खान-पान की वस्तुओं के दामों में भी उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई है। महंगाई के इन आकर्षक दिखने वाले आंकड़ों का लाभ आम जनता तक सही तरह पहुंचे और वह वास्तविक राहत महसूस करे, इसके लिए ऐसे उपाय करना आवश्यक है जिससे महंगाई नए सिरे से सिर न उठाने पाए। सरकार और साथ ही रिजर्व बैंक को इसके प्रति सतर्क रहना होगा कि महंगाई के मोर्चे पर यह जो सफलता मिली है उसे बरकरार रखा जाए, क्योंकि माना जा रहा है कि एक-दो माह बाद हालात फिर से प्रतिकूल हो सकते हैं। एक तो खरीफ की फसल में गिरावट से महंगाई पर नकारात्मक असर पड़ सकता है और दूसरे अगर हुदहुद तूफान से फसलों को ज्यादा नुकसान पहुंचा होगा तो उसके भी खराब नतीजे देखने को मिल सकते हैं। इन आशंकाओं के बावजूद एक अच्छी बात यह है कि कच्चे तेल की कीमतों में लगातार गिरावट आ रही है। यदि यह गिरावट जारी रहती है तो महंगाई को थामने में और अधिक मदद मिल सकती है। इस संभावना के साथ ही इस आशंका को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि पश्चिम एशिया में कभी भी हालात खराब हो सकते हैं और उसके परिणामस्वरूप कच्चे तेल की कीमतें फिर से चढ़नी शुरू हो सकती हैं।
नि:संदेह मानसून, प्राकृतिक आपदाओं और देश को प्रभावित करने वाली वैश्विक घटनाओं पर भारत सरकार का वश नहीं, लेकिन उन कारणों का निवारण किया ही जाना चाहिए जिनके चलते तमाम अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद महंगाई सिर उठा लेती है। यह एक तथ्य है कि आम लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार के चलते उनकी क्रय शक्ति बढ़ी है और वे अन्य वस्तुओं के साथ-साथ खाने-पीने की चीजों पर भी ज्यादा खर्च करने में समर्थ हो गए हैं। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि खाने-पीने की वस्तुओं की आपूर्ति में कोई कृत्रिम संकट न खड़ा होने पाए। यदि किन्हीं कारणों से फल-सब्जियों अथवा अनाज की पैदावार में कमी के आसार उत्पन्न हो गए तो उसका अनुमान समय रहते लगाने के साथ ही जरूरी उपाय भी किए जाएं। पिछली सरकार इसी मोर्चे पर नाकाम रही और उसे इसके दुष्परिणाम भी भोगने पड़े। खाने-पीने की वस्तुओं की आपूर्ति में कमी न आने देने के साथ-साथ सरकार को अन्य वस्तुओं की उत्पादकता के स्तर को बनाए रखने पर भी ध्यान देना होगा। जब तक महंगाई दर अपेक्षित स्तर पर आकर स्थिर न हो जाए तब तक रिजर्व बैंक से ब्याज दरों में कटौती की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। स्पष्ट है कि सरकार को महंगाई के मोर्चे पर अपनी सक्रियता को बरकरार रखना होगा और उन स्थितियों के प्रति सतर्क-सचेत रहना होगा जो महंगाई में वृद्धि का कारण बन सकती हैं।
[मुख्य संपादकीय]
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काबू में आती महंगाई

बीते वर्षो में महंगाई की मार से बेजार रहे देश को अब इस आफत से राहत मिलती दिख रही है। महंगाई दर के सितम्बर के आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि सरकार और रिजर्व बैंक के प्रयासों का असर दिखने लगा है। सितम्बर में खुदरा महंगाई दर अगस्त के 7.8 फीसद के मुकाबले जहां 6.46 फीसद तक गिर गई है, वही इस माह के थोक महंगाई दर के आंकड़े अगस्त के 3.74 फीसद की तुलना में 2.38 फीसद रहे हैं। खास बात यह है कि कमी खाने- पीने की चीजों की कीमतों में भी दर्ज हुई है जिसका लाभ देश के उस अधिसंख्य गरीब तबके को मिलेगा, जिसकी कमाई का बड़ा हिस्सा पेट की आग बुझाने में होम हो जाता है। सितम्बर में खुदरा खाद्य महंगाई दर 7.67 फीसद दर्ज की गई जो अगस्त के महीने में 9.35 फीसद थी। यदि सितम्बर 2013 के खाद्य महंगाई दर के 11.75 फीसद के आकड़े को देखें तो साफ है कि महंगाई बढ़ने की रफ्तार पर खासी लगाम लगी है। खास बात यह है कि थोक महंगाई दर का आंकड़ा जहां पिछले पांच वर्षो का न्यूनतम है, वहीं खुदरा महंगाई का स्तर जनवरी 2012 के बाद का निम्नतम है। यह स्थिति अधिक राहतकारी इसलिए भी है क्योंकि कुछ माह पूर्व जब मानसून के कमजोर रहने का अंदेशा दिखा था, तो सबसे बड़ी चिंता महंगाई को लेकर ही थी। लेकिन अब स्थिति पूरी तरह बदली दिख रही है। बेहतर बात यह भी है कि तमाम ऐसे संकेतक दिख रहे हैं जो आगे हालात और बेहतर होने की उम्मीद बंधाते हैं। मसलन, इस बात की पूरी संभावना है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में मतदान के उपरांत डीजल और पेट्रोल की कीमतों में कमी का ऐलान होगा। पेट्रोल के दाम पिछले दिनों में कई बार घट चुके हैं, जबकि डीजल के दाम यदि घटे तो ऐसा पिछले कई वर्षो में पहली बार होगा। डीजल की कीमत घटने का सीधा असर महंगाई पर पड़ेगा क्योंकि तमाम वस्तुओं के उत्पादन से लेकर उनके परिवहन की लागत इससे घट सकती है। किसान जहां सिंचाई के लिए डीजल का उपयोग करते हैं, वहीं हमारे कारखाना सेक्टर को भी बिजली किल्लत की भरपाई डीजल के उपयोग से करनी पड़ती है। बड़ी बात यह भी है कि महंगाई के तेवर नरम पड़ने से उम्मीद बढ़ गई है कि रिजर्व बैंक आगामी समीक्षा में नीतिगत दरों में कटौती कर सकता है। हालांकि खुदरा महंगाई अब भी रिजर्व बैंक की स्वीकार्य सीमा छह फीसद से मामूली तौर पर ऊपर है, लेकिन विकास के लिए मुफीद वातावरण बनाने के लिए रिजर्व बैंक दिसम्बर समीक्षा में ब्याज दरें घटाने का साहस दिखा सकता है। उद्योग जगत को कर्ज के सस्ता होने का इंतजार लंबे अरसे से है। बहरहाल, पूरी संभावना है कि आगामी महीनों में महंगाई का ताप और घटेगा, लेकिन इस राहत के बीच सरकार को खासकर खाद्य वस्तुओं के भंडारण और वितरण तंत्र की खामियों को दूर करने की मुकम्मल मशक्कत करनी होगी, ताकि आगामी महीनों में महंगाई की तपिश पुन: अर्थव्यवस्था और आम लोगों को सताने न लगे।
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इतना महंगा सपना किस काम का!

 शशांक द्विवेदी

एक तरफ सरकार देश में डिजिटल इंडिया का सपना देख रही है, वहीं दूसरी तरफ देश की लगभग सभी टेलीकॉम कंपनियों ने पिछले एक साल में उपभोक्ताओं के लिए 2जी और 3जी सेवाओं के लिए अपनी इंटरनेट पैक की दरें 60 से 80 फीसद तक बढ़ा दी है, जबकि इंटरनेट यूजर्स के लगातार बढ़ने से यह कीमतें कम होनी चाहिए। पिछले तीन महीनों में ही अधिकांश टेलीकॉम कंपनियों ने अपनी इंटरनेट दरें 40 फीसद तक बढ़ा दी है। सरकार डिजिटल इंडिया प्रोग्राम के तहत इंटरनेट की पहुंच गांव-गांव तक चाहती है लेकिन बढ़ती हुई कीमतें लोगों के लिए परेशानी का सबब बनी हुई हैं। अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ यानी आईटीयू की रिपोर्ट के अनुसार भारत में इंटरनेट 60 से ज्यादा देशों से महंगा है। आईटीयू के अनुसार किफायती ब्रॉडबैंड देने वाले देशों की सूची में भारत 93वें स्थान पर हैं, जबकि मोबाइल इंटरनेट के मामले में 67वें स्थान पर। अगर एशियाई देशों से ही तुलना करें तो भारत में इंटरनेट मॉरीशस, माल्टा और पड़ोसी देश श्रीलंका से भी महंगा है। प्रधानमंत्री मोदी के महत्वाकांक्षी डिजिटल इंडिया प्रोग्राम की सफलता के लिए देश में इंटरनेट दरों का कम होना जरूरी है। इसके लिए केंद्र सरकार को तत्काल कदम उठाने चाहिए। पिछले दिनों केंद्र सरकार ने देश को डिजिटल रूप में सशक्त बनाने और एक ज्ञान अर्थव्यवस्था में तब्दील करने के लिए लगभग एक लाख करोड़ रपए मूल्य के विभिन्न परियोजनाओं वाले डिजिटल इंडिया कार्यक्रम को मंजूरी दी थी। अब देश का हर गांव इंटरनेट से जुड़ेगा और सरकारी काम भी ऑनलाइन होंगे। इस कार्यक्रम में शामिल परियोजना का लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी सेवाएं नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से उपलब्ध हों और लोगों को नवीनतम सूचना व संचार प्रौद्योगिकी का लाभ मिले। सरकार के हर कोने को छूने वाले इस वृहद कार्यक्रम के प्रति सभी मंत्रालयों को संवेदनशील बनाया गया है। डिजिटल इंडिया परियोजना के तहत सरकार का लक्ष्य आईसीटी ढांचे का निर्माण करना है जिससे ग्राम पंचायत स्तर पर हाई स्पीड इंटरनेट उपलब्ध कराया जा सके और स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सरकारी सेवाएं मांग के अनुरूप उपलब्ध कराई जा सकें और डिजिटल माध्यम से साक्षरता के जरिए नागरिकों को सशक्त बनाया जा सके। असल में हमारी गवन्रेस पण्राली पुरानी हो चुकी है और इसमें आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। अगर हम इसमें बदलाव नहीं करते हैं तो हम लोगों के लिए भावी डिलीवरी सिस्टम का प्रबंधन नहीं कर सकते। 80 के दशक में हमने पहली पीढ़ी की दूरसंचार क्रांति के बीज बोए थे जब सिर्फ 20 लाख फोन थे और लोगों को लैंडलाइन कनेक्शन पाने के लिए सालों इंतजार करना पड़ता था। जबकि इस समय देश में 90 करोड़ मोबाइल फोन हैं और लगभग 15 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़े है। लेकिन अब भी यह संख्या हमारी आबादी के सामने काफी कम है। अब भी देश के अधिकांश गांवों में इंटरनेट के लिए कोई आधारभूत ढांचा नहीं है। बिना किसी बुनियादी ढांचे के डिजिटल क्रांति का सपना पूरा नहीं हो पाएगा। गांवों के स्कूलों में वर्चुअल क्लासेस का सपना, ई-शिक्षा का सपना भी तभी पूरा होगा जब उन स्कूलों में पहले से ही शिक्षा और शिक्षण का स्तर अच्छा हो। अभी देश के अधिकांश गांवों के सरकारी स्कूलों में हालात बहुत खराब हैं। इन स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं। ऐसे में डिजिटल इंडिया का सपना फलीभूत नहीं हो सकता । डिजिटल इंडिया के सपने का दूसरा पहलू यह भी है कि इंटरनेट का प्रसार सिर्फ इंटरनेट कनेक्शनों की उपलब्धता पर निर्भर नहीं है। इसके लिए जरूरी है कि अधिक से अधिक लोगों के पास कंप्यूटर हों, उन्हें चलाने के लिए बिजली आए, इंटरनेट कनेक्शनों के लिए जरूरी धन हो और इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए जरूरी जागरूकता तथा शिक्षा हो। इन सभी चीजों की सम्मिलित उपलब्धता के आधार पर ही इंटरनेट का प्रसार होगा और इस अभियान को गति मिल पाएगी। एक सकारात्मक पहलू यह है कि भारत में प्रति व्यक्ति आय तेजी से बढ़ रही है और पिछले एक दशक में वह लगभग ढाई गुना हो चुकी है। इसने पहले की तुलना में अधिक लोगों को शिक्षा और कंप्यूटर के प्रति जागरूक बनाया है। लेकिन अब भी गांवों और कस्बों में काफी काम किया जाना बाकी है। भारत में कंप्यूटरों के प्रसार का आंकड़ा (पीसी पेनेट्रेशन दर) तीन फीसद है। पड़ोसी देश चीन के 15 फीसद की तुलना में यह काफी कम है । दुनिया में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत को एक ताकत के रूप में देखा जाता है, लेकिन भारत में ही चीजें उतनी तेज गति से आगे नहीं बढ़ रहीं हैं, जितनी बढ़नी चाहिए। देश में इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड कहने को तो 24 एमबीपीएस तक पहुंच गई है लेकिन इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले आम आदमी से पूछिए कि क्या उसे वाकई ये सेवाएं उसी रफ्तार से मिलती हैं, जिसके लिए वह भुगतान करता है? हमारा ब्रॉडबैंड तंत्र काफी अकुशल है और फिर इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स (आईएसपी) ढांचागत विकास पर उतना ध्यान नहीं दे रहे जितना कि मुनाफा बटोरने पर। दूरसंचार के ढांचे में कई कमियां मौजूद हैं। हाई स्पीड इंटरनेट और बेहतर सेवा के लिए 3जी जैसी तकनीक देश के हर हिस्से में अब भी मौजूद नहीं है। इंटरनेट स्पीड और तकनीक के मामले में भारत दूसरे देशों की तुलना में अब भी बहुत पीछे है। बिजली की उपलब्धता, सस्ती कीमतों पर कंप्यूटरों तथा डिजिटल युक्तियों की मौजूदगी, शिक्षा, इंटरनेट के इस्तेमाल संबंधी जागरूकता, आम आदमी को उसकी भाषा में सेवाएं मुहैया कराने जैसे मोर्चो पर भी सरकारी और गैर सरकारी पहल की तुरंत जरूरत है। दूसरी पीढ़ी की क्रांति में हम इंटरनेट तथा वेब के जरिए गवन्रेस, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा दूसरी अन्य चीजों में बदलाव ला सकते हैं। इंटरनेट की उपयोगिता सिर्फ लोगों को तकनीकी आधार पर जोड़ने या सूचनाएं देने तक सीमित नहीं रही है, बल्कि इसने हमारे जीवन को ज्यादा सुविधाजनक और बेहतर बनाने में भी योगदान दिया है। उसने अनगिनत सरकारी और गैर सरकारी सेवाओं तथा सुविधाओं को आम आदमी तक पहुंचाया है। इंटरनेट फेनोमेनन ने नए किस्म के युवा उद्यमियों को जन्म दिया है जिनकी समन्वित ऊर्जा, इनोवेशन और प्रतिभा आज न्यू मीडिया और न्यू इकोनॉमी को कुशलता से ड्राइव कर रही है। संचार, मनोरंजन, कारोबार और सूचना के क्षेत्रों में क्रांति आ चुकी है जो देश में ई- कॉमर्स की सफलता और सोशल नेटवर्किग साइटों के लगभग 84 फीसद इंटरनेट यूजर्स तक पहुंच जाने से सिद्ध हो चुका है। शिक्षा, बैंकिंग, प्रशासन, मीडिया, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों के कायाकल्प की प्रक्रिया आज भी जारी है। इंटरनेट का साम्राज्य अब सिर्फ अंग्रेजी भाषियों तक ही सीमित नहीं है। भले ही कम अनुपात में ही सही, उसके फल भारतीय भाषा भाषियों तक भी पहुंचे हैं। ऐसे में सरकार का डिजिटल इंडिया कार्यक्रम सकारात्मक दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए बहुत सारे काम संजीदगी और समयबद्ध तरीके से करने होंगे।


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